Wednesday, March 23, 2016

HOLI - 2016

भइया हमरे कियन ता फगुवा काल्हि होई.......
जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की ।
और दफ़ (चंग) के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की ।
परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की ।
ख़म शीशए, जाम छलकते हों तब देख बहारें होली की ।
महबूब नशे में छकते हों तब देख बहारें होली की ।
हो नाच रंगीली परियों का बैठे हों गुलरू[4] रंग भरे ।
कुछ भीगी तानें होली की कुछ नाज़ो-अदा के ढंग भरे ।
दिल भूले देख बहारों को और कानों में आहंग[5] भरे ।
कुछ तबले खड़के रंग भरे कुछ ऐश के दम मुँहचंग भरे ।
कुछ घुँघरू ताल झनकते हों तब देख बहारें होली की ।
सामान जहाँ तक होता है इस इशरत के मतलूबों का ।
वो सब सामान मुहैया हो और बाग़ खिला हो ख़ूबों (सुंदरियों) का ।
हर आन शराबें ढलती हों और ठठ हो रंग के डूबों का ।
इस ऐश मज़े के आलम में इक ग़ोल खड़ा महबूबों का ।
कपड़ों पर रंग छिड़कते हों तब देख बहारें होली की
गुलज़ार खिले हों परियों के, और मजलिस की तैयारी हो ।
कपड़ों पर रंग के छीटों से ख़ुशरंग अजब गुलकारी हो ।
मुँह लाल, गुलाबी आँखें हों, और हाथों में पिचकारी हो ।
उस रंग भरी पिचकारी को, अँगिया पर तककर मारी हो ।
सीनों से रंग ढलकते हों, तब देख बहारें होली की
इस रंग रंगीली मजलिस में, वह रंडी नाचने वाली हो ।
मुँह जिसका चाँद का टुकड़ा हो औऱ आँख भी मय की प्याली हो ।
बदमस्त, बड़ी मतवाली हो, हर आन बजाती ताली हो ।
मयनोशी हो बेहोशी हो 'भड़ुए' की मुँह में गाली हो ।
भड़ुए भी भड़ुवा बकते हों, तब देख बहारें होली की
और एक तरफ़ दिल लेने को महबूब भवैयों के लड़के ।
हर आन घड़ी गत भरते हों कुछ घट-घट के कुछ बढ़-बढ़ के ।
कुछ नाज़ जतावें लड़-लड़ के कुछ होली गावें अड़-अड़ के ।
कुछ लचकें शोख़ कमर पतली कुछ हाथ चले कुछ तन फ़ड़के ।
कुछ काफ़िर नैन मटकते हों तब देख बहारें होली की
यह धूम मची हो होली की और ऐश मज़े का छक्कड़ हो ।
उस खींचा-खींच घसीटी पर और भडुए रंडी का फक्कड़ हो ।
माजून, शराबें, नाच, मज़ा और टिकिया, सुलफ़ा, कक्कड़ हो ।
लड़-भिड़के 'नज़ीर' फिर निकला हो कीचड़ में लत्थड़-पत्थड़ हो ।
जब ऐसे ऐश झमकते हों तब देख बहारें होली की

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